सबेरे-सबेरे घंटा लगा कर
निंदिया को दूर भगा कर
कसमसा कर उठ कर
जिम जाने को जग जाता हूँ
टेढ़े मेढे मुह बना कर
आँखें ऊपर नीचे कर कर
आईने मैं मुह सजा कर
जिम जाने को सज जाता हूँ
पहन जांघिया कस लंगोट मैं
गंजी पहन आईने आता हूँ
जिम जाने से पहले खुद को
पल दो पल देख जाता हूँ
देख आइने, सोचता हूँ
कब? मैं भी सलमान बनूँगा?
मोटे मोटे डोले होंगे
तगड़े तगड़े टांगें
सेक्सी सी एब्स होंगे
और सेक्सी काधे..
कब मैं भी सलमान बनूँगा?
अब रोज मैं जिम जावुंगा ...
पहुँच जिम में, देख सल्लू को
मंद मंद कुस्कता हूँ
आज आया हूँ देखो जिम में
मैं भी तुमसा बन जावुंगा ...
उतार बैग और रख के चाभी
ट्रेडमिल पर चढ जाता हूँ...
मिनट दो मिनट के दौड-धुप से
कुत्ते सा थक जाता हूँ...
निकाल जीभ फिर कुत्ते सा मैं
पानी को मुह लगता हूँ
संभल फिर मैं सल्लू को
आँखें मार चैलेंजे दे आता हूँ
रुक जाओ पल दो पल अब
मैं जिम पे आता हूँ
फिर देखेंगे दोले सोले
फिर देखेंगे तोले .,..........
जिम भी क्या है, मस्त जिम है
मेला हम सा लोगों का है
एक हैं अपने नत्थू लाला
चार फीट की काठी उनकी
चार इंच के दोले...
आठवी मॉस पैदाईश इनकी
आठ माह का तबला ...
अस्सी वजन है आज भी उनका
घटता ना ही बढ़ता
अब्दुला का भी क्या कहना
सबेरे वो भी आते हैं
दस ग्राम वजन को भी
चीख-चीख उठाते हैं..
क्या बतावु गुज्जू मामा की
जब जब वो वजन उठाते हैं
हर वजन को नए बोरे का
नामकरन कर जाते हैं ... (आटा, चावल, गेहू, हल्दी जैसा वेट वैसा बोरे का वेट)
भूल गया मैं दारूवाला की
जब वो दौड आते हैं,
हिसाब कर वो हमे रोज ,
फीस उसूलना समझाते है..
गज़नी मास्टर का भी का कहना
काठी मस्त हैं दोले भी खूब
दीखते हैं वो भी कुछ खूब
अच्छे प्यारे से सुन्दर से थे
गज़नी ने खूब रंग दिखाया
पोनीटेल को टकला बनवाया..
ऐसा है ये जिम हमारा
कितना है प्यारा न्यारा
दस माह से जिम लगी है
दस माह से रोज लगी है
दस किलो की वजन चढ़ी थी
दस बार की रुटीन बनी थी
आज भी वही मैं सजा हुआ हूँ
ना कम है ना बढ़ा हुआ हैं
वजन वही पर पड़ा हुआ हैं
देख मास्टर खड़ा होता हूँ
जमीं को छूने मैं जाता हूँ
तोंद पर आ रुक जाता हूँ
खायी थी खूब रबरी मलाई
तोंद मैं ही है सब छुपाई
अब भी माँ का प्रेम छुपा है
पापा का भी स्नेह छुपा है
रईसों के घर से हम थे
भूखों नंगों से ना हम थे
तब ही हमने तोंद बनायीं
स्नेह प्रेम की तोंद बनायीं
फिर आडे क्यूँ ना आये अब ये
स्नेह हटाये... हटे कैसे ये
फिर भी हम जिम जायेंगे
रोज़ रोज हम जिम आयेंगे ...
जम के जब मैं थक जाता हूँ
जिम से मैं घर आ जाता हूँ
भूल भाल हर कामों को
आएने के पास आ जाता हूँ
नंग धडंग हो बाथरूम मैं
बॉडी अपनी सहलाता हूँ
देख देख दोले को अपनी
मंद मंद खुद मुस्काता हूँ
कुछ तों बढ़ी है कुछ तों सुधरी है
ये मान खूब इठलाता हूँ
सलमान सा दोले होंगे
सेक्सी सा तों कभी एब्स बनेंगे
सोच सोच मैं मुस्काता हूँ
मैं रोज जिम जाता हूँ
रोज रोज मैं जिम जाता हूँ
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लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
-------- दो शब्द ही सही,, आपके शब्द कोई और करिश्मा दिखा जाए--- Leave your comments please.