Dec 2, 2011

ताले चाभी की व्यथा

खूबसूरत वादियों के आँगन मैं
मोहक फूलों के बगिया में
मादक खुसबू से नहाई
एक हसीं सी दरबार सजी थी

देवों की आसन सजी थी ..
सिंहासन पे रती प्रेम से,
कामदेव के संग सजी थी ...
प्रेम की दरबार सजी थी



खडे खेल रहे दरबारी
मतमौले मस्ताने दरबारी
अठखेली करते  दरबारी
हँसते खेलते युगल दरबारी
प्रेम प्यार मैं खोये दरबारी

घंटी की मधुर ध्वनि से
कोलाहल का स्वर थमा,
सन्नाटों ने दामन थामा,
गभीर मुद्रा मैं,
गभीर स्वर में,
सूत्रधार ने वाचन थामा.

हे देव, सुनो व्यथा आज की
आज गुहार है ताले की
चाबी के अन्यायों पर
आज पुकार है ताले की

कामदेव सुन मुस्काए
सुन रति भी कुछ शरमाई.
हे रति, अब आप बताये
ताले की ये क्या गुहार सुनाये?

ताले से दलीले मांगी,
चाभी पर आरोपे मांगी.
क्रंदन करती ताले ने तब
कामदेव को दलीले डाली .

हे देव मैं क्या व्यथा सुनावु ?
अपने जीवन की क्या कथा सुनावु?
चाभी के संग हैं हम जब से
प्रेम श्रृंगार मैं हैं हम सजे तब से
जन्म दिया था जब आपने हमको
दिए-बाती की प्यार दी आपने हमको
साथ रहेंगे हम चाभी के संग
वर दिया था आपने उनके संग

प्रेम हम चाभी से कर बैठे
प्रेम भी ऐसा प्रेम किये अब
स्पर्शमात्र से खिल उठते अब
रोम रोम से सिहर उठती मैं अब

चाभी के सिर्फ इक छुवन से
अंग अंग से सज जाती हूँ
चाभी के मिलनमात्र से
अंग अंग से खिल जाती हूँ

प्रेम हुआ चाभी से ऐसा
घर्षण से एक चाभी का
सज जाता गुलाबी अंग ऐसा
भर जाती रस मुझमें ऐसा
सागर का जल हो जैसा

प्रेम हुआ चाभी से ऐसा
एक चुम्बन के छुवन से
सज जाती हैं अंग अंग मेरी
इत्र की डिबिया हो जैसा

व्यथा अब ऐसी सजी है
पल पल को मैं तरसी हूँ
सज संवर मैं द्वार सजती हूँ
भोर से रात बांटे तकती हूँ
एक बार दर्शन को तरसी हूँ
स्पर्श को मैं दिन दिन तरसी हूँ

मुझ से तों अच्छी हैं बाती
रोज दिए संग हैं जल जाती
मुझ से तों अच्छी हैं शमां
परवाने का नेह है थामा

मुझ से तों अच्छी वो पड़ोस की ताला
रात से सुबह तक चाभी को पा डाला
मैं तों बस प्यासी ही रहती हूँ
चाभी के संग को तरसी हूँ

कब तक है मुझ को यूँ ही जलना
चाभी के बिन मिलन के मरना
देव मेरी अब  व्यथा मिटाओ
ना सको तों जीवन मिटाओ..

सुन व्यथा रति भी हिली
कामदेव से मिन्न्ते मांगी
करे उपाय इन  दोनों का
मिलन प्यास मैं जलते दोनों
करे उपाय और प्यास बुझाये

चाभी का भी दिल भर आया
आँखों मैं आंसू भर आया
रुंधे गले को संभाल कहा
हे चाभी ! ये व्यथा सही है
तुमने जो सब बात कही है
नतमस्तक मैं स्वीकारता उनको

पर  देवी, ना नाराज़ रहो यूँ
ना मुझ पे ये वार करो यूँ
मैं भी तुमसे प्यार करता
तुम बिन इस जीवन का मैं क्या करता
मेरा तों अस्तित्व तुम्ही हो
जीवन का सारांश तुम्ही हो
तुमसे ही है स्नेह हमारा
तुमसे ही है आधार हमारा

द्वार प्रहरी सा बना तुम्हे
गृह स्वामी जब कर्म को जाता
मुझको अपने संग रक्षक सा
तुझसे दूर है ले जाता

कर्त्तव्य तुम्हारा द्वार प्रहरी का
और मेरा है रक्षक का ...
दोनों के हैं कर्म ही ऐसे
संग साथ रहे हम कैसे

तुम क्या जानो
कठिन कितना है
तुमसे विरह ये जीना है
तुम तों द्वार सजती हो
मुझको तों सिर्फ हैं घूमना

तुमसे है ये प्यार कितना
स्पर्श तुम्हारा इक पाकर मैं
दुनिया जहाँ भूल जाता हूँ
अपने संरचना को भूल
 दैत्य-रूप धर जाता हूँ

तुमसा ही है प्यार हमे भी
ना सोचो की स्नेह नहीं फिर
रस सागर में गोते ले कर
 आनंद के गोते लेता हूँ

मद सागर से रस में तेरे
जीवन रस मैं देता हूँ   
पूर्ण मिलन के प्रेम में  
एक एक पल मैं जीता हूँ

हम भी हैं जीने को तरसे
तेरे स्पर्श को हैं तरसे
अंग तुम्हारी सोने जैसी
बर्षों से छूने को तरसे

क्या बताये व्यथा हम तुझको
कैसे कैसे ख्वाब सजाये ले तुझको.
स्नेह है तुमसे इतना
अथाह सागर मैं जल हो जीतना

हे देव बताये,  क्या करे हम
प्यार सजाये कैसे हम?
कैसे हम ताले को समझाए
कैसे मिलन-प्यास बुझाये?

ना हो गर हल यहाँ पे
इस योनी से हमे मिटाए
प्रेम हमे हैं अपने ताले से
सजे हैं हम अपने ताले से

व्यथा कथा सुन देव घबडाये
रति के कानों में बुदबुदाए
स्वास गभीर सा देव ने ले कर
दोनों को पास बुलाया
प्यार से उनको समझाया

वर तुम्हे हमने ही दिया
ताले चाभी का जीवन दिया
इस योनी मैं जन्म दिया
प्रेम दिया हमने अपने सा
रूप दिया हमने रति सा
विरह से यूँ ना तुम घबड़ाओ
मन को अधीर ना यूँ बनावो

कर्तव्य कर्म का मोल है जैसे
प्रेम मिलन का मोल हैं वैसे
मिलन गर हो हर पल का
समझोगे ना मोल मिलन का

विरह मैं जब प्रेमी जलते हैं
प्यासे हम और रति रहते हैं
होगा जब वो मिलन मुहूरत
खूब सजेगी वो पवन रूत...

दूर नहीं हैं वो पल तुम्हारा
जब होगा साथ हरपल तुम्हारा
ना घबड़ाओ ताली प्यारी
जल्द होगी श्रृंगार तुम्हारी

खूब सजोगी, खूब निखरोगी
सोलह श्रृंगार पवोगी
स्नेह तुम्हे चाभी का पवोगी
प्यार तुम चाभी का पावोगी...

क्यूँ रूठी हो चाभी ताले
व्यथा तुम्हे है प्रेम प्यास से
आज से मैं है वर देता
हर जीव को तुमसा मैं करता

ताले जैसे तरसेंगे सब
मिलन प्यास को तरसेंगे सब
रस भाव ताले से होंगी
कर्म भाव चाभी से होंगी

अब ना हो तू और उदास
ना देख कहीं और हो उदास
 जब जब मिलन में कोई तरसेंगे
चाभी ताले को दर्शेंगे

पाकर देव दिलासा
चाभी ने ह्रदय लगा
ताले को चुम्बन से सजाया
आगोश मैं में बाँहों का
ताले को अंग से लगाया

प्यार मुझे है तुझसे रानी
ना रुठ मुझसे कभी तू रानी
प्यार मुझे है तुझसे रानी
प्यार मुझे बस तुझसे रानी

खुश देख चाभी तले को
कामदेव भी मुस्काए
दरबार समाप्ति की घोषण से
प्रेमक्रीडा की आगास लगाई.

२/१२/११  

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लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
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