आँगन के इक कोने में
नन्ही सी एक पोध उगी है
नन्ही नन्ही पत्तों की
नन्ही सी एक पोध उगी है
पत्तों की मासूम शिकंज ले
आँगन के दिवार को थामे
नन्ही सी वो पोध खड़ी है
हल्दी के रंगत में
नन्ही सी एक कली सजी है
ध्यान पड़ा जब इस कली पर
ठिठक गया मैं रुक कर
नन्ही सी इस पोध को देख
बैठ गया मैं रुक वहीँ पर
सह सकी ना खुद के तन को
पत्तों का है टेक लेकर
दीवार से खुद को थाम रखा है
नन्ही सी इस पौध मैं देखा
जीवन रस के भाव को देखा
बदल गए जब पत्ते इसके
सूख हुए जब पत्ते इसके
सड़े पड़े उस जीवन-पत्र को
खुद से अलग करते देखा
शोक किया न सूखे पत्तों का
शोक किया न रूखे पत्तों का
जन्म दिया था उसने ही पत्तों को
छोड़ दिया उन्ही पत्तों को
जीवन के कठोर से रुख में
नए पत्तों का फिर साज किया
नवआशा ले मन में फिर,
नव-पर्ण का निर्माण किया
रुक गया न कोलाहल से
थम गया न टूटे पत्तों से
जीवन सुर का पान किया
जीवन का है पान किया
काश कि हम भी पौधे होते
काश कि हम ऐसा कर पाते
टूटे बिखरे जीवन-रिश्तों को
पत्तों सा अलग कर पाते
काश कि हम भी पौधे होते
छोड़ पिली सुखी रिश्तों को
नव रिश्तों को साथ ले पाते
ऊँची सी दीवार को थामे
नव रिश्तों को संग ले पाते
काश कि हम भी पौध होते
काश कि जीवन पौधे सा होता
२/१२/११
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लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
-------- दो शब्द ही सही,, आपके शब्द कोई और करिश्मा दिखा जाए--- Leave your comments please.