डोलते टूटते कश्ती से डर
बना आया मैं
एक कश्ती
बीच भंवर में ...
सजाया
संवारा
संभाला
सींचा
नन्ही कश्ती को
बनाता
मिटाता
रुकता
फिर बनाता
नन्ही कश्ती को
लहरों के वेग से
बह न जाय
एक पाँव से
रोकता
लडखडाता
लड़खड़ाते हुए भी
बहने से रोकता
डरता कहीं पुरानी
कश्ती
नन्ही सुराखों से
पड़ी दरारों से
जल का प्रवाह ले
खुद को डूबा
हमे भी
जल समाध न दे जाय
बनाता रहा
नन्ही उस कश्ती को
दो पगों में
दो कश्तियाँ कहाँ कोई
नन्ही सी उस कश्ती को
प्रेम से जिसे सजाया था
आज भंवर में उसे छोड़
खुद को हवाले
टूटती बिखरती
कश्ती को
दे आया हूँ
टूटी इस कश्ती को
संवांरने मैं चला आया हूँ
नन्ही सी उस कश्ती को
भंवर मैं छोड़ आया हूँ
खुदगर्ज़ मैं आज
अपनी खुदगर्जी सजा आया हूँ
आज मैं नन्ही
कागज के कश्ती को
भंवर मैं छोड़
खुद ही अपनी
जल समाधी
सजा आया हूँ
जल समाधी गर
मिल जाए
इस खुदगर्ज़ को
वर खुदा का होगा
या कोई दुआ
दुखती रग से
तडपते दिल से
नन्ही सी कागज के कश्ती को
जलसमाधि में सजा आया हूँ......
११/१२/११
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लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
-------- दो शब्द ही सही,, आपके शब्द कोई और करिश्मा दिखा जाए--- Leave your comments please.