तुम पास नहीं थी
बिस्तर पर तुमसे लिपटी
सिलवटे अब भी थी
तकिये के गिलाफ पर
दो आँसुवों के बूंद थे
जो तुम्हारे आँखों से टपक
लावारिस से पड़े थे
सिरहाने की मेज़ पर
तुम्हारी तस्वीर थी
और वहीँ पड़ी अलसाई
सी तुम्हारी एहसास थी
ढूँढा गुसलखाने में
नल से चिपकी पानी की बूंद थी
जो तुम्हारे जुल्फों से नहा
बरस जाने कों बेकरार थी
रसोई में पहुँचा तों
चाय की प्याली लुढकी हुई थी
तुम्हारे गुनगुनाहट से सज
गर्म हों उठने कों आतुर थी
बरामदे पर आया तों
भीनी सूरज की आंच
जुल्फों कों तुम्हारी
सुखा जाने कों रुकी पड़ी थी
ना पा कर तुम्हे कहीं
घर के सन्नाटे कों सुना
पर पायल की तुम्हारी
खनक कही ना थी
ना पाकर तुम्हे घर पर
किराने के दुकान पर ढूँढा
बिन मोल भाव करवाए
बनिया भी सुस्त पड़ा था
भागता मचलता भागता
पार्क पर गया तों
उस पेड़ के तले तुम नहीं
कोई और जोड़ा था
थक उसी बेंच पर बैठा
जहाँ हम बैठा करते थे
बेंच पर पड़ी धुल
ना होंने का गवाह था
हार कर तुम्हे ना पा कर
हताश सा वही बैठ गया
हताश हों घास के पन्नों कों
नोच गया...तुम कहीं ना थी ...
हाथों के लकीरों पर नज़र पड़ी
तुम्हारे ना होने की
वजह समझ पड़ी..
घबडा के आँधियों में
हाथों से तुम फिसल पड़ी
संभाल ना पाया खुद कों
खुद कों खुद से मिटा गया
पर ऐसा क्यूँ कि आज तुम कहीं नहीं
और आज मैं तुम बिन कहीं नहीं
मुझ बिन
क्या तुम उतना ही खुश हों,
जितना तुम बिन मैं उदास हूँ?
एक एक पल तुम्हारे लिए मन तरसता है ... २०/२/१२
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लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
-------- दो शब्द ही सही,, आपके शब्द कोई और करिश्मा दिखा जाए--- Leave your comments please.