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ज़िन्दगी भी अजीब है,
नन्ही नन्ही मर्तबानों में कई कई सवालों को छोड़ जाती है. कई बार चमचमाती हुई चांदी
सी प्रतीत होती हैं. और कई बार अपने यार को घुप अँधेरे में छोड़ सवालों को गोद में
छोड़ जाती हैं. चमचमाहट सिर्फ दिखावे की होती है पर अन्दर ही इसका गूढ़ छिपा होता
है. मैं भी इन्ही सवालों में कई बार उलझा रहता हूँ कि क्या मैं जी रहा हूँ?
कमरे के जीवंत कोने में
एक वास,
एक गुलदस्ता
फूलों से सजा
कई वर्षों से
उसी कोने में पड़ा है.
चमचमाता हुआ वो वास,
फूलों को संजोये
बहुत खुबसूरत लगता
घर आने वाले मेहमान
निहारते और
खुबसूरती पर उसके
चंद अलफ़ाज़ जोड़ जाते.
आज,
न जाने क्यूँ
हमे भी निहारने का
मन कर गया
पास से देखा,
उसकी चमचमाहट पर
धुल की कुछ परत आ
गयी थी
पोछा,
तो जगमगाहट
कुछ और निखर आई..
नज़र फ्लावर वास के
अन्दर पड़ी
अँधेरा सा था,
घूप अँधेरा,
रौशनी की कोई किरण न
थी
लम्हे डाले तो थे
लम्हों को तो
कई बार संजो कर
यहाँ डाले तो थे.
कई बार तो आशाओं के
रंगों में लपेट
लाल कागज़ से कई पल
बाँध कर
इसी मर्तबान में
डाले तो थे..
फिर क्यूँ?
ज़िन्दगी सी इस वास में
सिर्फ अँधेरा ही है
कहाँ गए वे लम्हे,
जिन्हें संजो के
हमने डाले थे?
प्रश्नों के टेढ़े मेढ़े
चिन्ह
ज़िन्दगी सी
अँधेरी वास के इर्द
गिर्द हैं ...और
ज़िन्दगी , एक घुप अँधेरे को थाम बैठी हैं ...
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लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
-------- दो शब्द ही सही,, आपके शब्द कोई और करिश्मा दिखा जाए--- Leave your comments please.