
सपना भी बड़ा अजीब सा था. ऊँची ऊँची निर्जन से पहाड़ थे, दूर दूर तक एक भी हरियाली ना थी और थे बस निर्जीव से चट्टान और चट्टानों के ऊपर चट्टान. एक अजीब सा अकेलापण था पूरे माहौल में. और पहाड के इस निर्जीवता कों चीरता मैं दौड रहा था एक एथलीट की तरह. हलफ पेंट, स्नीकर्स, बनियान पहने, हांफता हुआ दौड़े ज रहा था किसी अनजान से मंजिल की तरफ. नज़ारे पीछे गयी तों देखा एक बड़ी सी टोकरी बंधी पड़ी थी एक मोटी सी जर्जर रस्से से. रस्सी का कोना कुछ ऐसा बंधा था मुझसे की मैं दौड रहा था और रस्से से जुडी वो बड़ी सी टोकरी फिसलती पीछे आ रही थी. देख कर भी रुका नहीं, शायद रुकना ही नहीं चाहता था. साथ बढ़ी टोकरी अपने संग शायद कुछ समेटती ज रही थी क्यूँकी उसका बोझ अब हमे चुभने सा लगा था. पास ही एक बड़ी से चट्टान थी जहाँ कुछ देर सुस्ता सकता था मैं. देख कर दौडना बंद किया और रुक गया. किसी मनचले मुसाफिर ने अपने प्यार का सन्देश छोड़ रखा था ...चट्टान का नाम भी दे रखा था.. घिस आई थी नाम, पर ध्यान से पढ़ा तों अंगरेजी में लिखा था “टाइम रोक”. ज्यादा सोचा नहीं और कोई पल गवाना शायद नहीं चाहता था. टोकरी कों पास घसीटा तों देखा कई चीज़ उसमे पड़े थे. दौड़ते वक्त तों नज़र नहीं पड़ी थी, फिर ये कैसे आ गए इस टोकरी में? काफी कुछ था, एक-एक चीज़ हाथ में लेता, गौर से उन्हें देखता और वापस रख देता.. उनका वहाँ होने का औचित्य समझ ही ना आ रही थी... सहसा खड़ा हुआ, कमर से रस्सी खोलने के कोशिश की तों गीठ खुलने का नाम ही नहीं ले रही थी.. बहुत जद्दोजहद कर रहा था कि गीठ खुले और इसे यहीं छोड़ कर वापस दौडाना शुरू करू. हर तरह से खोलने की कोशिश कर रहा था और इसी पेशोपेश में पसीने से तरबतर हों गया था मैं. हांफने लगा था, किसी भी तरह इस गठरी कों छोड़ कर भागने की कोशिश नाकाम हों रही थी. इसी पेशोपेश में सपना टूट गया था. और मैं पसीने से तरबतर था.